चाटुकारिता एक साधना है। साधे से सधता है।सब से नहीं सधता! अभ्यास से यह सध सकता है। इसके साधक को बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है। त्याग से ही यह साधना पूरी होती है। आत्मसम्मान , रीढ़ की हड्डी , नैतिकता आदि का त्याग अतिआवश्यक कहा जाता है।जिससे सध गया वह धन्य हो गया।सारी मनोवांक्षित सफलता और सम्पन्नता उसके चरणों में होती है। जिसने नहीं साधा वह लाख मेधा, प्रतिभा , परिश्रम के बाबजूद प्रताड़ित होने की नियति को प्राप्त हो जाता है।
चाटुकारिता एक यज्ञ है। कहते हैं कि इसका फल दस हजार अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक होता है। यज्ञ के पूर्व नैतिकता को छोड़ते हुए अल्पावधि में आगे बढ़ने की अग्नि प्रज्वलित किया जाता है।समिधा के रूप में अवसर और संभावनाओं का उपयोग किया जाता है। आहुतियों के लिए मंत्र अलग होते हैं जो लक्ष्य के मार्ग में आने वाली कुर्सियों , व्यक्तियों पर प्रत्यानुपाततिक बल उत्पन्न करता है। कौन से मंत्र , कब , किसके सामने , किस स्वर में , सस्वर या जप करना है, यह समय , स्थान , परिस्थिति, उद्देश्य, आदि पर निर्भर करता है।
चाटुकारिता एक कला है। इसमें तेरह कलाओं का समावेश होता है। चुप्पी, गुपचुप तरीके , गोपनीयता, कपट, षड्यंत्र, धोखाधड़ी, ठगी, गुमराह करने , अवसर को पहचानने , लक्ष्य के लिए पगडंडी मार्ग का चयन , मार्ग के कांटों को हटाने, पांव के निशान मिटाने , लक्ष्य के पिछले दरवाजे की पहचान करना यही तरह कलाएं हैं। इन कलाओं को सीखने, इनका अभ्यास करने से ही यज्ञ पूर्ण होता है।
चाटुकारिता एक वट वृक्ष है। यह हर दिशा में फैला होता है, सदाबहार , कहीं भी उगने वाला ,तेजी से बढ़ने वाला , जड़ें ऊपर से निकलने वाली और अपने नीचे किसी पौधे को न बढ़ने देने वाला . बस इसी को मस्तिष्क और आत्मा में लगाकर बढ़ाते रहना है . जितना विस्तृत वृक्ष उतना आनंद !
अब पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूँ कि वे किस मार्ग से चाटुकारिता को अपनाकर धड़धड़ाते हुए किस सफलता की सीढ़ियों पर चढ़कर सम्पन्नता के छीके को झटक लेते हैं।