जमानत पर राजनीति: अदालत का फैसला या चुनावी मुद्दा?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’। 

जमानत! एक ऐसा शब्द जो कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा होते हुए भी चुनावी मौसम में जादूई असर दिखाने लगता है। अब देखिए, हमारे माननीय मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के आदरणीय मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल—दोनों को हाल ही में जमानत मिली है। हेमंत सोरेन जमीन घोटाले में और अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले में फंसे थे। दोनों नेताओं ने कुछ महीनों की जेल यात्रा की और फिर अचानक अदालतों ने उन्हें जमानत दे दी। बस, क्या था, राजनीति की नई स्क्रिप्ट तैयार हो गई!

अब ये तो पुरानी बात है कि नेता चुनाव के समय जनता के मुद्दों को केंद्र में रखते हैं। लेकिन हमारे इन दो नेताजी लोगों ने इस बार अपनी जेल यात्रा और जमानत को ही चुनावी मुद्दा बना लिया है। सोचिए, अदालत ने साफ कहा कि “सबूत नहीं हैं”, और हमारे नेता इसे मानो ‘क्लीन चिट’ समझकर जनता के बीच जाकर प्रचार कर रहे हैं। मानो अदालत ने कह दिया हो, “आप निर्दोष हैं, जाइए चुनाव जीतिए!”

अब सवाल यह है कि आखिर इन दोनों नेताओं ने कैसे खेल किया? दरअसल, अदालत की टिप्पणी ने उन्हें वह हथियार दे दिया, जिसे वे चुनावी मंच पर बड़ी ही चतुराई से इस्तेमाल कर रहे हैं। झारखंड हाईकोर्ट ने हेमंत सोरेन को जमानत देते हुए कहा कि “प्रथम दृष्टया कोई सबूत नहीं है”। उधर, सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को जमानत देते वक्त सीबीआई को कहा कि “तोता मत बनो”। वाह, क्या कमाल की टिप्पणियां हैं! अब भला हमारे नेता इन टिप्पणियों को भुनाने में पीछे क्यों रहें?

जमानत का तो मतलब साफ था—अभी दोष सिद्ध नहीं हुआ है, तो जमानत मिल गई। लेकिन नेताओं ने इसे अपने चुनावी प्रचार का मुख्य मुद्दा बना लिया। कहने लगे कि केंद्र सरकार के इशारे पर सीबीआई और ईडी उन्हें फंसा रही है, ताकि उनकी आवाज़ दबाई जा सके। वैसे, जब “तोता” शब्द आ जाए, तो जनता भी समझ ही जाती है कि खेल क्या है। अब दोनों ही नेता अपने-अपने राज्यों में यही कह रहे हैं कि उन्हें बेवजह जेल में डाला गया, ताकि वे चुनाव न लड़ सकें।

हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल, दोनों ने अपनी-अपनी जेल यात्रा को “सत्याग्रह” के रूप में प्रचारित किया। जेल जाना भी अब एक राजनीतिक उपलब्धि हो गई है। और हां, जेल से निकलने के बाद जब अदालतों ने जमानत दी, तो उसे नेताओं ने मानो प्रमाणपत्र समझ लिया। भला यह कैसी राजनीति है, जिसमें अदालत की टिप्पणी को लेकर जनता के बीच सहानुभूति बटोरी जा रही है?

दिल्ली और झारखंड में चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में हमारे ये दो नेता अपनी जेल यात्रा का फायदा उठाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। केजरीवाल दिल्ली में कह रहे हैं कि “हमारे खिलाफ झूठे केस बनाए गए”, और हेमंत सोरेन झारखंड में बोल रहे हैं कि “भाजपा आदिवासी मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है”। अब जनता यह सोचने पर मजबूर है कि क्या सच में उन्हें झूठे केस में फंसाया गया, या फिर यह सब चुनावी चाल है?

नेताओं के जेल जाने का फायदा उठाकर उनकी पत्नियां भी राजनीति में सक्रिय हो गईं। हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन और अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल ने अपने-अपने पति की गैर-मौजूदगी में पार्टी की कमान संभाली। यह नया राजनीतिक समीकरण भी काफी दिलचस्प है। ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, ये दोनों नेता अपनी पत्नियों को भी जनता के सामने एक “सहयोगी नेता” के रूप में पेश कर रहे हैं।

कल्पना सोरेन और सुनीता केजरीवाल के बीच बढ़ती नजदीकियों से यह साफ हो जाता है कि झारखंड और दिल्ली की राजनीति अब परिवारवाद के नए आयाम छूने वाली है। दोनों नेत्रियां अपने-अपने क्षेत्रों में न सिर्फ पार्टी का काम संभाल रही हैं, बल्कि जनता के बीच अपनी छवि भी मजबूत कर रही हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या चुनावी मंच पर भी ये दोनों एक-दूसरे के साथ खड़ी नजर आएंगी?

इंडिया गठबंधन में शामिल आम आदमी पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जमानत को अपनी राजनीति का नया मॉडल बना लिया है। गठबंधन की पार्टियां लगातार यह आरोप लगाती रही हैं कि केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं को फंसाने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है। अब तो इन दोनों नेताओं की जमानत इस आरोप को और मजबूत करने के लिए पर्याप्त है।

हेमंत सोरेन ने इसे “आदिवासियत” से जोड़ दिया है। वे लगातार यह कहते रहे हैं कि भाजपा उन्हें सिर्फ इसलिए निशाना बना रही है क्योंकि वे एक आदिवासी मुख्यमंत्री हैं। उधर, अरविंद केजरीवाल भी यही दावा करते हैं कि केंद्र सरकार उनकी लोकप्रियता से डरती है, इसलिए उन्हें झूठे केस में फंसाया गया। अब ये दोनों नेता अपने-अपने राज्यों के चुनावी मंच पर इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाएंगे।

अब सवाल यह है कि जनता किस पर विश्वास करेगी? क्या वह अदालतों की टिप्पणियों को सिर्फ कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा मानेगी, या फिर इन नेताओं की बातों में आकर मान लेगी कि उन्हें बेवजह फंसाया गया? वैसे, राजनीति का इतिहास बताता है कि जब नेता जमानत पर होते हैं, तब जनता के बीच उनकी छवि और मजबूत हो जाती है। चुनावी सभाओं में हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल अपनी जमानत को एक “विजय” के रूप में पेश करेंगे, और जनता भी शायद इसे इसी रूप में देखेगी।

आखिर में एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी—अगर जमानत ही इतनी बड़ी राजनीतिक सफलता है, तो क्यों न हमारे नेताओं के लिए एक नया अवॉर्ड शुरू कर दिया जाए? नाम हो सकता है, “जमानत रत्न”! जो नेता जितनी बार जमानत पाएगा, वह उतना ही बड़ा “रत्न” कहलाएगा। आखिरकार, हमारे देश में राजनीति और जमानत अब एक-दूसरे के पूरक जो बन गए हैं!

आखिरकार, यह कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति और कानूनी प्रक्रियाएं अब एक-दूसरे से इतने जुड़ गए हैं कि जनता के लिए यह समझ पाना मुश्किल हो गया है कि सच्चाई क्या है। हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल दोनों ही इस जमानत के सहारे अपने-अपने चुनावी अभियान को मजबूती देने की कोशिश कर रहे हैं। चुनावी मैदान में दोनों नेता अपनी जमानत को एक “सफलता की गाथा” के रूप में प्रस्तुत करेंगे, और जनता इस पर कैसे प्रतिक्रिया देती है, यह देखना बाकी है।