साधो ! पंछी जन्म से नहीं उड़ता. वह उड़ने के लिए तैयार होता है, बड़े बनने की नैसर्गिक प्रक्रिया से जुड़ता है. उड़ने के लिए वह अपने पंखों पर निर्भर हो जाता है, पंखों के सामर्थ पर विश्वास रखता है.फिर प्रयास करता है. कुछ असफलताओं के बाद उड़ना सीखता है. उसे आनंद आता है. फिर अपनी क्षुधा शांत करने, शत्रुओं से बचने आदि के लिए उड़ता है. पिंजरे में कारागारित पंछी के पर इसलिए कतर दिए जाते हैं कि वह उड़ न सके.उड़ते कालखंड में उसकी दृष्टि अपने लक्ष भोजन अथवा शत्रु से बचने की ओर होता है. अधिकतर वह उड़ते हुए पकड़ा भी नहीं जाता. पकड़ा तो जब जाता है, जब नीचे उतरते उसे धोखा होता है अथवा अज्ञानतावश वह बहेलियों की जाल में लालच से फँसता है. उसकी अधिकतर महात्मा जी के तोते ही भांति होती है, जो बहेलिये की जाल में फंसकर रटता रहता है –
शिकारी आएगा
जाल बिछायेगा
दाना डालेगा
लोभ से फंसना मत !
साधो !उड़ने के लिए असीमित आकाश होता है, जिसकी जितनी शक्ति, जिसका जितना सामर्थ ! उड़ने से धरती छूट जाती है, धरती से उसकी दूरी बढ़ जाती है. उड़ने वाला अपने को धरती पर रहने वालों से ऊँचा समझ लेता है. चमगादड़ तक पंछी न होते हुए भी उड़ते हैं और फिर वृक्ष की शाखाओं में उल्टा लटक कर आकाश की ऊंचाई अपनी दृष्टि, कल्पना शक्ति और अनुभव से नापते हैं. उसे धरती की सारी सृष्टि उल्टी लगती है. अंग्रेजी भाषा के पेविट नाम से जाना जाने वाला जलचर पक्षी टिटिहरी की भांति चमगादड़ भी सोचता है कि आकाश को मैं अपने बल पर थामे हुए हूँ और मैं न रहूं तो यह आकाश नीचे गिर जाएगा. कई उड़ने वालों को भी यही भ्रम होता है. उड़ने की क्षमता रखने वाले साधारण मनुष्य की पँहुच और पकड़ से दूर रहते हैं अथवा रहने के लिए हर सम्भव यत्न करते हैं.
पंछी के आकाश में उड़ने की बात चली तो आजकल पंछी की तरह दिखने वाले गुप्तचर यंत्र शत्रु की सीमाओं से गोपनीय जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रयोग में लाए जाते हैं. कुछ सयाने बाजों को इसलिए भी पोसते हैं. एक समय था कि आकाश में उड़कर पंछी, विशेषकर प्रशिक्षित कबूतर प्रेम पत्रों से आदान -प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे.इस प्रेम पत्रों के आदान -प्रदान की गौरवशाली परम्परा को अंतर्जाल दूरभाष, चलंत दूरभाष पर पूर्णतया निर्भर हो चला है. इस क्रम में प्रेमपत्रों का स्वरूप बदला, सिकुड़कर कुछ शब्दों में निहित हो चला.
मनुष्यों ने सर्वदा पंछियों से ईर्ष्या भाव रखा, तभी तो पुरातन काल से पुष्पक विमान से लेकर आजकल एक से बढ़कर एक तकनीकी रूप से समृद्ध विमानों की ढेर लग गयी. उद्देश्य एक मात्र यही – पंछी की भांति उड़ना आकाश में.
साधो ! सफलता के साथ सम्पन्नता की प्राप्ति की साधना में लगा हर साधक उड़ना सीखता है ताकि सफलतापूर्वक वह अपनी साधना के बल पर शीघ्रताशीघ्र आकाश को छू सके, ऊँचा उठ जाए, धरती के तुच्छ प्राणियों से ऊँचा बन सके और उनकी पकड़ और समझ से परे रहे. कई साधक परिवार के वायुयानों से उड़ते हुए पैराशूट से धरती पर किसी ऊँची कुर्सी पर उतरते हैं. कुर्सी पर एकाधिकार जमाकर क्षणिक बैठकर पुनः साधना में लग जाते हैं. साधना के प्राताप से कुर्सी सुरक्षित रखते हुए पंछी की आत्मा को अपने शरीर में आह्वाहित कर उसे सफलतापूर्वक धारणकर उड़ते हुए आकाश की ऊंचाइयों में विचरण करने लगते हैं. फिर समय पर धीरे – धीरे फुदकते हुए एक से बढ़कर एक ऊँची से ऊँची कुर्सी पर एकाधिकार करने में सफल होते हैं. वे पैरवी, परिवारवाद, जातिवाद, धन आदि के पंख आवश्यकतानुसार बदलते रहते है. इस प्रकार के पंछी आकाश में उड़ते रहते हैं, बहुत कम पकड़ में आते हैं. बिरलों के ही पंख कतरे जाते हैं. जितना उत्कृष्ट साधक, उतने सशक्त उसके पंख और उतनी ही ऊँची उसकी उड़ान !